आये मिथिला नगर के मांही,
रघूकूल भूषन राम दुलारे, संगहे लक्षमन भाइ....
आइ सखियां करती बतियां, सपनेहु देखो में नाहीं
एसो बर जो मिले सीयाको, चण्द्र चन्द्रकोरी मिल जाइ...आये..
गौर बदन एक श्याम शरीरा, एक चंचल एक धीर गंभीरा
एक देखुं तो भूलजाउ दुजा, चलत नहीं चतुराइ...आये..
नर नारी सब निरखन लागे, बर बस शिश जुकाइ
सूरज चंदा संगमें निकला, पूरन कला पसरै....आये..
थाल भरी पूजा को निकली, जनक दुलारी लजाइ
नैन मिले जब मूंदली पलके, छबी निकसी नहीं जाइ.आये...
सुर सब अंबर देख सु अवसर, फ़ूल कुसुम बरसाइ
दीन "केदार" ये दिलसे निहारे, जनम मरन मिट जाइ.. आये..
No comments:
Post a Comment